सोमवार, 23 जुलाई 2012

ऋण-परिहारक प्रदोष-व्रत

‘प्रदोष व्रत’ के दिन अर्थात् कृष्ण-पक्ष एवं शुक्ल-पक्ष की त्रयोदशी (तेरस) तिथि को प्रातःकाल स्नानादि कर भगवान् शंकर का यथा-शक्ति पञ्चोपचार या षोडशोपचार से पूजन करें। फिर निम्नलिखित ‘विनियोग’ आदि कर निर्दिष्ट मन्त्र का यथाशक्ति २१, ११, १ माला या केवल ११ बार जप करे।
विनियोगः- ॐ अस्य अनृणा-मन्त्रस्य श्रीऋण-मुक्तेश्वरः ऋषिः। त्रिष्टुप् छन्दः। रुद्रो देवता। मम ऋण-परिहारार्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीऋण-मुक्तेश्वरः ऋषये नमः शिरसि। त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे। रुद्र-देवतायै नमः हृदि। मम ऋण-परिहारार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे।
कर-न्यासः- ॐ अनृणा अस्मिन् अंगुष्ठाभ्यां नमः। अनृणाः परस्मिन् तर्जनीभ्यां नमः। तृतीये लोके अनृणा स्याम मध्यमाभ्यां नमः। ये देव-याना अनामिकाभ्यां नमः। उत पितृ-याणा कनिष्ठिकाभ्यां नमः। सर्वाण्यथो अनृणाऽऽक्षीयेम करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।
अङग-न्यासः- ॐ अनृणा अस्मिन् हृदयाय नमः। अनृणाः परस्मिन् शिरसे स्वाहा। तृतीये लोके अनृणा स्याम शिखायै वषट्। ये देव-याना कवचाय हुम्। उत पितृ-याणा नेत्र-त्रयाय वौषट्। सर्वाण्यथो अनृणाऽऽक्षीयेम अस्त्राय फट्।
ध्यानः-
ध्याये नित्यं महेशं रजत-गिरि-निभं चारु-चन्द्रावतंसम्,
रत्नाकल्पोज्ज्वलांगं परशु-मृग-वराभीति-हस्तं प्रसन्नम्।
पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममर-गणैर्व्याघ्र-कृत्तिं वसानम्,
विश्वाद्यं विश्व-बीजं निखिल-भय-हरं पञ्च-वक्त्रं त्रिनेत्रम्।।
अर्थात् भगवान् रुद्र पञ्च-मुख और त्रिनेत्र हैं। चाँदी के पर्वत के समान उनकी उज्ज्वल कान्ति है। सुन्दर चन्द्रमा उनके मस्तक पर शोभायमान है। रत्न-जटित आभूषणों से उनका शरीर प्रकाशमान है। अपने चार हाथओं में परशु, मृग, वर और अभय मुद्राएँ धारण किए हैं। मुख पर प्रसन्नता है। पद्मासन पर विराजमान हैं। चारों ओर से देव-गण उनकी वन्दना कर रहे हैं। बाघ की खाल वे पहने हैं। विश्व के आदि, जगत् के मूल-स्वरुप और समस्त प्रकार के भय-नाशक-ऐसे महेश्वर का मैं नित्य ध्यान करता हूँ।
उक्त प्रकार ध्यान कर भगवान् रुद्र का पुनः पञ्चोपचारों से या मानस उपचारों से पूजन कर हाथ जोड़कर निम्न प्रार्थना करे-
अनन्त-लक्ष्मीर्मम सन्निधौ सदा स्थिरा भवत्वित्यसि-
वर्धनेन नानाऽऽदृतः शत्रु-निवारकोऽहं भवामि शम्भौ !
अर्थात् हे शम्भो ! कभी समाप्त न होनेवाली लक्ष्मी मेरे पास सदा-स्थिर होकर रहे और मैं काम-क्रोधादि सब प्रकार के शत्रुओं को दूर करने में समर्थ बनूँ।
मन्त्र-जाप- “ॐ अनृणा अस्मिन्, अनृणाः परस्मिन्, तृतीये लोके अनृणा स्याम। ये देव-याना उत पितृ-याणा, सर्वाण्यथो अनृणाऽऽक्षीयेम।”
रुद्राक्ष या रक्त-चन्दन की माला से प्रातःकाल यथा शक्ति पूर्व निर्देशानुसार जप करें। यदि समर्थ हो, तो किन्हीं वेदपाठी ब्राह्मण द्वारा ‘षडंग-शत-रुद्रीय’ में उक्त मन्त्र का ‘सम्पुट’ लगाकर भगवान शंकर का अभिषेक करे और सम्पुटित ११ पाठ कराए। आवश्यकतानुसार ‘शिव-महिम्न-स्तोत्र’ में भी उक्त मन्त्र का ‘सम्पुट’ लग सकता है। अभिषेक के बाद पुनः पूजन एवं मन्त्र-जप कर, निम्न स्तोत्र का पाठ करे-
जय देव जगन्नाथ, जय शंकर शाश्वत। जय सर्व-सुराध्यक्ष, जय सुरार्चित ! ।।
जय सर्व-गुणानन्त, जय सर्व-वर-प्रद ! जय सर्व-निराधार, जय विश्वम्भराव्यय ! ।।
जय विश्वैक-विद्येश, जय नागेन्द्र-भूषण ! जय गौरी-पते शम्भो, जय चन्द्रार्ध-शेखर ! ।।
जय कोट्यर्क-संकाश, जयानन्त-गुणाकर ! जय रुद्र-विरुपाक्ष, जय नित्य-निरञ्जन ! ।।
जय नाथ कृपा-सिन्धो, जय भक्तार्त्ति-भञ्जन ! जय दुस्तर-संसार-सागरोत्तारण-प्रभो ! ।।
प्रसीद मे महा-भाग, संसारार्त्तस्य खिद्यतः। सर्व-पाप-क्षयं कृत्वा, रक्ष मां परमेश्वर ! ।।
मम दारिद्रय-मग्नस्य, महा-पाप-हतीजसः। महा-शोक-विनष्टस्य, महा-रोगातुरस्य च।।
महा-ऋण-परीत्तस्य, दध्यमानस्य कर्मभिः। गदैः प्रपीड्यमानस्य, प्रसीद मम शंकर ! ।।

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